ॐ गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:। गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।

हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!!

आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी सकूँ.

ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि

!! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!

Thursday, March 20, 2014

साधन के दो प्रधान सूत्र


।।श्रीहरिः।।
नम्र निवेदन

प्रायः सत्संग की मार्मिक बातों को गहराई से न समझने के कारण साधकों के भीतर संशय रहता है कि जब हमें कुछ भी नहीं चाहिये, तो फिर साधन-भजन क्यों करें ? जब कोई अपना ही नहीं है, तो फिर दूसरों की सेवा क्यों करें ? आदि-आदि। वास्तव में ये शंकाएँ शरीर के साथ अपना सम्बन्ध मानने से ही उत्पन्न होती हैं। इस विषय को प्रस्तुत पुस्तक ‘साधन के दो प्रधान सूत्र’ में बहुत सरल तथा सुन्दर रीति से समझाया गया है। सभी साधकों के लिये यह पुस्तक बहुत उपयोगी है। साधकों से नम्र निवेदन है कि इस पुस्तक को मनोयोगपूर्वक पढ़ें और सच्ची बात को स्वीकार कर के लाभ उठायें।

1 साधन के दो प्रधान सूत्र

चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए जीव को परमपिता परमात्मा अपनी अहैतुकी कृपा से बीच में ही मानव शरीर प्रदान करते हैं। इस मानव शरीर को प्राप्त करके जीव सुगमता से अपना कल्याण कर सकता है। इसलिये गोस्वामीजी महाराज ने कहा है—

बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।। (मानस, उत्तर. 43/4)


भगवान् ने तो इसलिये मानवशरीर प्रदान किया कि जीव संसार-बन्धन से छूटकर सदा के लिये कृत्यकृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाय। परन्तु दुःख की बात है कि मनुष्य अपने उद्देश्य से विमुख होकर भोग तथा संग्रह में लग गया ! कभी कोई मनुष्य संतकृपा अथवा भगवत्कृपा से साधन में लग भी जाता है तो उसमें दृढ़ निश्चय की कमी रहती है। दृढ़ निश्चचय के बिना उसका जीवन साधनमय नहीं बन पाता। जीवन साधन मय न बनने के कारण वह कोरी बातें सीखकर वक्ता अथवा लेखक तो बन सकता है, पर परमशान्ति नहीं प्राप्त कर सकता। जीवन को साधनमय बनाने के लिये यह आवश्यक है कि साधक इन दो बातों को दृढ़तापूर्वक स्वीकार कर ले—

(1) मेरा कुछ भी नहीं है, मेरे को कुछ भी नहीं चाहिये और मेरा किसी से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।
(2) केवल भगवान् ही मेरे अपने हैं।

पहली बात संसार से सम्बन्ध-विच्छेद कराने वाली है और दूसरी बात भगवान् की प्राप्ति करनेवाली है। पहली बात को दृढ़ता से स्वीकार करने से ‘भक्ति’ की सिद्धि हो जाती है। अतः विवेकप्रधान साधक पहली बात को स्वीकार करे। परिणाम में दोनों ही प्रकार के साधन कृतकृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जायँगे। उनका मनुष्यजन्म सफल हो जायगा। इन बातों को सीखना नहीं है, प्रत्युत स्वयं से स्वीकार करना है। सीखी हुई बात की विस्मृति हो सकती है, परन्तु स्वीकार की गयी बात की विस्मृति नहीं होती।

अब यह शंका पैदा होती है कि जब मेरा कुछ भी नहीं है तो फिर माता-पिता की सेवा क्यों करें ? वस्तुओं की रक्षा क्यों करें ? जब मेरे को कुछ नहीं चाहिये तो फिर अन्न-जल की क्या जरूरत है ? जब मेरा किसी से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है फिर दूसरे की सहायता क्यों करें ? सेवा क्यों करें ? जब केवल भगवान् ही मेरे अपने हैं तो फिर पति की सेवा क्यों करें ? इन सब शंकाओं का मूल कारण यह है कि साधक उपर्युक्त दोनों बातों को शरीर के साथ एक होकर स्वीकर करता है। शरीर के साथ में—मेरे सम्बन्ध (तादात्म्य) ही बन्धन का मूल कारण है। इसलिये हमारे स्वरूप के विषय में गोस्वामी जी ने कहा है।

ईश्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।। (मानस, उत्तर. 117/1)

अब इस पर विचार करते हैं —   ‘ईस्वर अंस जीव’—

जीव स्वयं अंश है और परमात्मा अंशी हैं। भगवान् ने भी कहा—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता 15/7)। जैसे भगवान् सत्-चित्-आनन्द स्वरूप हैं, ऐसे ही जीव भी सत्-चित्-आनन्स्वरूप हैं जैसे सभी बेटों का माँ पर समान अधिकार होता है, ऐसे ही परमपिता परमात्मा पर मानवमात्र का समान अधिकार है। जैसे कोई राजकुमार ‘मैं राजा का बेटा हूँ’—इस बात को भूलकर भीख माँगता है तो राजा को आश्चर्य के साथ-साथ बड़ा दुःख होता है, ऐसे ही सांसारिक भोग और संग्रह में लगे हुए मनुष्य को देखकर भगवान् को बड़ा दुःख होता है कि यह मेरे को प्राप्त न करके अपना पतन कर रहा है

—‘मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्’ (गीता 16/20।

साधक में इस बात का गर्व (स्वाभिमान) होना चाहिये कि भगवान् मेरे अपने हैं, मैं भगवान् का हूँ—

अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे।। (मानस, अरण्य. 11 । 11)

हम त्रिलोकी के स्वामी परमपिता परमात्मा की सन्तान हैं, फिर हम तुच्छ नाशवान संसार की ओर हाथ क्यों फैलायें ? जो संसार के सम्मुख होता है, उसको संसार अपना दास बना लेता है। परन्तु जो भगवान् के सम्मुख होता है, स्वयं भगवान् उसके दास बन जाते हैं—‘अहं भक्तपराधीनः’ (श्रीमद्भा.9/4/63); ‘मैं तो हूँ भगतन का दास, भगत मेरे मुकुटमणि’! ऐसे परमसुहृदय प्रभु को छोड़कर संसार को चाहना कितनी मूर्खता की बात है !

‘अबिनासी’—

परमात्मा अविनाशी हैं; अतः उनका अंश जीव भी अविनाशी है—‘अविनाशी तु तद्विद्धि’ (गीता 2/17)। परन्तु स्वयं अविनाशी होकर भी नाशवान् शरीर-संसार के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है—

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। (गीता 15/7)


इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा स्वयं मेरा ही सनातन अंश है; परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है अर्थात् अपना मान लेता है।’

तत्वज्ञान कैसे हो स्वामी रामसुखदास



           
तत्वज्ञान कैसे हो  स्वामी रामसुखदास 

।।श्रीहरिः।।
नम्र निवेदन

प्रायः प्रत्येक साधक के भीतर यह जिज्ञासा रहती है कि तत्त्वज्ञान क्या है ? तत्त्वज्ञान सुगमता से कैसे हो सकता है ? आदि। इस जिज्ञासाकी पूर्ति करने के लिये प्रस्तुत पुस्तक साधकों के लिये बड़े कामकी है। इसमें जो बातें आयी हैं, वे केवल सीखने-सिखाने की, सुनने-सुनाने की नहीं हैं, प्रत्युत अनुभव करने की हैं।

तत्त्वज्ञान का सहज उपाय

हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं हैयह बात यदि समझ में आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है ! इसमें समय लगने की बात नहीं है। समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है। जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे

संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।

दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ। इसमें मैं प्रकृति का अंश है और हूँ परमात्मा का अंश है। मैं जड़ है और हूँ चेतन है। मैं आधेय है और हूँ आधार है। मैं प्रकाश्य है और हूँ प्रकाशक है। मैं परिवर्तनशील है और हूँ अपरिवर्तनशील है। मैं अनित्य है और हूँ नित्य है। मैं विकारी है और हूँ निर्विकार है। मैं और हूँ को मिला लियायही चिज्जडग्रन्थि (जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है। मैं और हूँ को अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि मैं को साथ मिलाने से ही हूँ कहा जाता है। अगर मैं को साथ न मिलायें तो हूँ नहीं रहेगा, प्रत्युत है रहेगा। वह है ही अपना स्वरूप है।

एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि मैं बेटा हूँ, बेटे के सामने कहता है कि मैं बाप हूँ, दादा के सामने कहता है कि मैं पोता हूँ, पोता के सामने कहता है कि मैं दादा हूँ, बहन के सामने कहता है कि मैं भाई हूँ, पत्नी से के सामने कहता है कि मैं पति हूं, भानजे के सामने कहता है कि मैं मामा हूँ, मामा के सामने कहता है कि मैं भानजा हूँ आदि-आदि। तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो अलग-अलग हैं, पर हूँ सबमें एक है। मैं तो बदला है, पर हूँ नहीं बदला। वह मैं बाप के सामने बेटा हो जाता, बेटे के सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है। अगर उससे पूछें कि तू कौन है तो उसको खुद का पता नहीं है ! यदि मैं की खोज करें तो मैं मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी। कारण कि वास्तव में सत्ता है की ही है, मैं की सत्ता है ही नहीं।

बेटे की अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा हैइस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं। स्वयं का नाम तो निरपेक्ष है है। वह है मैं को जाननेवाला है। मैं जाननेवाला नहीं है और जो जाननेवाला है, वह मैं नहीं है। मैं ज्ञेय (जानने में आनेवाला) है और है ज्ञाता (जाननेवाला) है। मैं एकदेशीय है और उसको जानने वाला है सर्वदेशीय है। मैं से सम्बन्ध मानें या न मानें, मैं की सत्ता नहीं है। सत्ता है की ही है। परिवर्तन मैं में होता है, है में नहीं। हूँ भी वास्तव में है का ही अंश है। मैं पनको पकड़ने से ही वह अंश है। अगर मैं-पन को न पकड़ें तो वह अंश (हूँ) नहीं है, प्रत्युत है (सत्ता मात्र है) मैं अहंता और मेरा बाप, मेरा बेटा आदि ममता है। अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है

निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।

यही ब्राह्मी स्थिति है। इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् है में स्थिति का अनुभव होने पर शरीर का कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीर को मैंमेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता।

मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर हैइस प्रकार वस्तुओं में तो फर्क है, पर है में कोई फर्क नहीं है। ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँइस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है। अनेक शरीरों में, अनेक अवस्थाओं में चिन्मय सत्ता एक है। बालक, जवान और वृद्धये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओं में सत्ता एक है। कुमारी, विवाहिता और विधवाये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधिये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है। अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता। ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्धइन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवाले में कोई फर्क नहीं पड़ता।

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।

हे पार्थ ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई सम्मोहित नहीं होता। इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।

यदि जाननेवाला भी बदल जाय तो इन पाँचों की गणना कौन करेगा ? एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तन का ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तन का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। सबका इदंता से भान होता है, पर अपने स्वरूप का इदंता से भान कभी किसी को नहीं होता सबके अभाव का ज्ञान होता है, पर अपने अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। तात्पर्य है कि है (सत्तामात्र) में हमारी स्थित स्वतः है करनी नहीं है। भूल यह होती है कि हम संसार है’—इस प्रकार नहीं में है का आरोप कर लेते हैं। नहीं में है का आरोप करने से ही नहीं (संसार) की सत्ता दीखती है और है की तरफ दृष्टि नहीं जाती। वास्तव में है में संसार’—इस प्रकार नहीं में है का अनुभव करना चाहिये। नहीं में है का अनुभव करने से नहीं नहीं रहेगा और है रह जायगा।

भगवान् कहते हैं।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत्का अभाव ही विद्यमान है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है।
एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदि में अपनी जो परिच्छिन्न सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, एकदेशीयता) को लेकर ही दीखती है। जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपने को एक देश, काल आदि में देखता है। अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदि में परिच्छिन सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत अपरिच्छिन्न सत्तामात्र रहती है।

वास्तव में अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है। सांसारिक पदार्थों की जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है। सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है। इसलिये तत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है।

अतः तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है। इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं। अहम् ज्ञानी में होता है, ज्ञान में नहीं। अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है।  उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है। कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयं से ही स्वयं का ज्ञान होता है। वास्तव में ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है। अज्ञान मिटाने को ही तत्त्वज्ञान का होना कह देते हैं

गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:। गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।

गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:
गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:।।

प्रेम अमिय मन्दर विरह भरत पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटे सुर साधु हित कृपासिन्धु रघुबीर।।
बिस्व भरण-पोषण कर जोई।  ताकर नाम भरत अस होई।।
गई बहोर गरीब नेवाजू।  सरल सबल साहिब रघुराजू।।
जपहि नामु जन आरत भारी।  मिटाई कुसंकट होहि सुखारी।।
नमो भगवते वासुदेवाय
ओम नमः शिवाय
कैलाशी काशी के वासी अविनाशी मेरी सुध लीजो।
सेवक जान सदा चरनन को अपनी जान कृपा कीजो॥
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय अवगुण मेरे सब ढकियो।
सब अपराध क्षमाकर शंकर, सबकी की विनती सुनियो॥

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेणसंस्थिता।
नमस्तस्यैनमस्तस्यैनमस्तस्यैनमोनम:।।
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति:II

स्वामी रामसुखदास जी महाराज

हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!! हे नाथ ! हे नाथ मैँ आपको भूलूँ नही...!!
आप मेरे हृदय मेँ ऐसी आग लगा देँ कि आपकी प्रीति के बिना मै जी सकूँ.

ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशि
!! श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेवाय !!

शांताकरम भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं, विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णँ शुभांगम।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगभिर्ध्यानिगम्यम। वंदे विष्णु भवभयहरणम् सर्वलोकैकनाथम॥

हनुमान जी के नाम

हनुमान, अंजनी सुत, वायु पुत्र, महाबल, रामेष्ठ, फाल्गुण सखा, पिंगाक्ष, अमित विक्रम, उदधिक्रमण, सीता शोक विनाशन, लक्ष्मण प्राण दाता, दशग्रीव दर्पहा

रामायण के माहा चरित्र

रामायण को हिंदूवर्ग के लोगो दुआरायक पूज्येनीय ग्रन्थ है! कुछ विद्वान् इस ग्रन्थ को काल्पनिक कथाओ का संग्रह मानते है! पहली बात तो यह है की अगर इतना बड़ा समुदाय इस ग्रन्थ की सत्त्यता को मानते है ! तो उनेह किसी के भी विचार से विचलित होने की जरुरत नही है! लोग भले ही इसे एक काल्पनिक ग्रन्थ माने पर वह भी इसके द्वारा अपने जीवन मे कुछ लाभ कमा सकते है !


१.मार्यादा पुरशोतम श्री राम :- श्री राम रामायण के महानायकऔर महापात्र है! जिन्होंने कई आदर्शो को अपने जीवन मे उतारकर एक सादारण मनुस्य की भांति जीवन मे आने वाले हर सुख दुःख को अपना कर एक पुत्र ,भाई ,पति ,मित्र ,शिष्य ,सम्बन्धी,युवराज,राजा,आदि सभी मे आपना कर्म करके सभी के सामने यह उदहारण दिया है की स्वंम भगवान् को भी कर्म से मुक्ति नही है और उनेह भी दुखो -परेसनियो का सामना करना पड़ता है ! तो आम आदमियों की तो बहुत छोटी बात है !


२.सीता:-प्रभु श्री राम जी की भार्या सीता है ! जिनका चरित्र समस्त भारतीय महिलाओ के लिए आदर्श है ! क्योकि माता सीता जी ने महलो का सुख छोड़ कर अपने पति के साथ जंगलो मे जाना स्वीकार किया और हमेशा पतिव्रत धर्म का पालन किया !


३.दशरथ:-श्री राम प्रभु के पिता होने का गोरव सूर्यवंशी महाराज दसरथ जी को प्राप्त हुआ है!दसरथ जी ने अपने चरित्र मे आदर्श महाराजा ,पुत्रोको प्रेम करने वाला पिता,और अपने वचनों की प्रति पूर्ण समर्पित थे!और अनुचित होते ही भी अपने वचनों पालन किया ! जिससे यह सिख मिलती हे की बिना सोचे किसी भी प्रकार का वचन नही देना चाहीऐ यह सर्वथा अनुचित है !
४.लछमन :- श्री राम प्रभु के अनुज होने के साथ ही राम जी का विशेष स्नेह प्राप्त है !लछमन जी को आदर्श भाई होने का गोरव प्राप्त है और यह भी कहा जाता है की राम दुबारा जनम ले सकते है परंतु लछमन जेसा भाई दुबारा नही हो सकता है !कियोकी इनके जीवन का एकमात्र लाछ्य श्री राम की सेवा मे समर्पित कर समस्त सुखो को त्याग कर हमेशा राम जी का साथ दिया !
५.भरत :-भरत जी चरित्र आदर्सो से परिपूर्ण था और वह भी राम जी के के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से प्रेम करता था इसिलीय जो राज उसे अपनी माँ की कुटिलता के कारन प्राप्त हुआ पर उसने राज पाठ न अपना कर भगवान् श्री राम की चरण पादुका को सिहासन आरुढ कर स्वम उनके प्रतिनिधि के तोर पर राज की देख भाल की जो भरत के महान चरित्र को दर्शाती है !
६.शत्रुघन :-इन्होने भी लछमन के समान ही भरत की सेवा और श्री राम जी की आराधना की !
७.हनुमान :-हनुमान जो श्री राम के सबसे बडे भक्त है !हनुमान जी ने अपनी जीवन राम जी की सेवा भक्ति मे ही समर्पित किया है !वेसे हनुमान जी काफी कथा प्रचलित हे परन्तु इनकी सबसे बड़ी ख़ास बात है की निस्वार्थ भक्ति और सेवा भाव!
जय श्री राम