।।श्रीहरिः।।
नम्र निवेदन
प्रायः सत्संग की मार्मिक बातों को गहराई से न समझने के कारण साधकों के भीतर संशय रहता है कि जब हमें कुछ भी नहीं चाहिये, तो फिर साधन-भजन क्यों करें ? जब कोई अपना ही नहीं है, तो फिर दूसरों की सेवा क्यों करें ? आदि-आदि। वास्तव में ये शंकाएँ शरीर के साथ अपना सम्बन्ध मानने से ही उत्पन्न होती हैं। इस विषय को प्रस्तुत पुस्तक ‘साधन के दो प्रधान सूत्र’ में बहुत सरल तथा सुन्दर रीति से समझाया गया है। सभी साधकों के लिये यह पुस्तक बहुत उपयोगी है। साधकों से नम्र निवेदन है कि इस पुस्तक को मनोयोगपूर्वक पढ़ें और सच्ची बात को स्वीकार कर के लाभ उठायें।
1 साधन के दो प्रधान सूत्र
चौरासी लाख योनियों में भटकते हुए जीव को परमपिता परमात्मा अपनी अहैतुकी कृपा से बीच में ही मानव शरीर प्रदान करते हैं। इस मानव शरीर को प्राप्त करके जीव सुगमता से अपना कल्याण कर सकता है। इसलिये गोस्वामीजी महाराज ने कहा है—
बड़े भाग मानुष तन पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा।।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा।। (मानस, उत्तर. 43/4)
भगवान् ने तो इसलिये मानवशरीर प्रदान किया कि जीव संसार-बन्धन से छूटकर सदा के लिये कृत्यकृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जाय। परन्तु दुःख की बात है कि मनुष्य अपने उद्देश्य से विमुख होकर भोग तथा संग्रह में लग गया ! कभी कोई मनुष्य संतकृपा अथवा भगवत्कृपा से साधन में लग भी जाता है तो उसमें दृढ़ निश्चय की कमी रहती है। दृढ़ निश्चचय के बिना उसका जीवन साधनमय नहीं बन पाता। जीवन साधन मय न बनने के कारण वह कोरी बातें सीखकर वक्ता अथवा लेखक तो बन सकता है, पर परमशान्ति नहीं प्राप्त कर सकता। जीवन को साधनमय बनाने के लिये यह आवश्यक है कि साधक इन दो बातों को दृढ़तापूर्वक स्वीकार कर ले—
(1) मेरा कुछ भी नहीं है, मेरे को कुछ भी नहीं चाहिये और मेरा किसी से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।
(2) केवल भगवान् ही मेरे अपने हैं।
पहली बात संसार से सम्बन्ध-विच्छेद कराने वाली है और दूसरी बात भगवान् की प्राप्ति करनेवाली है। पहली बात को दृढ़ता से स्वीकार करने से ‘भक्ति’ की सिद्धि हो जाती है। अतः विवेकप्रधान साधक पहली बात को स्वीकार करे। परिणाम में दोनों ही प्रकार के साधन कृतकृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य हो जायँगे। उनका मनुष्यजन्म सफल हो जायगा। इन बातों को सीखना नहीं है, प्रत्युत स्वयं से स्वीकार करना है। सीखी हुई बात की विस्मृति हो सकती है, परन्तु स्वीकार की गयी बात की विस्मृति नहीं होती।
अब यह शंका पैदा होती है कि जब मेरा कुछ भी नहीं है तो फिर माता-पिता की सेवा क्यों करें ? वस्तुओं की रक्षा क्यों करें ? जब मेरे को कुछ नहीं चाहिये तो फिर अन्न-जल की क्या जरूरत है ? जब मेरा किसी से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है फिर दूसरे की सहायता क्यों करें ? सेवा क्यों करें ? जब केवल भगवान् ही मेरे अपने हैं तो फिर पति की सेवा क्यों करें ? इन सब शंकाओं का मूल कारण यह है कि साधक उपर्युक्त दोनों बातों को शरीर के साथ एक होकर स्वीकर करता है। शरीर के साथ में—मेरे सम्बन्ध (तादात्म्य) ही बन्धन का मूल कारण है। इसलिये हमारे स्वरूप के विषय में गोस्वामी जी ने कहा है।
ईश्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।। (मानस, उत्तर. 117/1)
अब इस पर विचार करते हैं — ‘ईस्वर अंस जीव’—
जीव स्वयं अंश है और परमात्मा अंशी हैं। भगवान् ने भी कहा—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता 15/7)। जैसे भगवान् सत्-चित्-आनन्द स्वरूप हैं, ऐसे ही जीव भी सत्-चित्-आनन्स्वरूप हैं जैसे सभी बेटों का माँ पर समान अधिकार होता है, ऐसे ही परमपिता परमात्मा पर मानवमात्र का समान अधिकार है। जैसे कोई राजकुमार ‘मैं राजा का बेटा हूँ’—इस बात को भूलकर भीख माँगता है तो राजा को आश्चर्य के साथ-साथ बड़ा दुःख होता है, ऐसे ही सांसारिक भोग और संग्रह में लगे हुए मनुष्य को देखकर भगवान् को बड़ा दुःख होता है कि यह मेरे को प्राप्त न करके अपना पतन कर रहा है
—‘मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्’ (गीता 16/20।
साधक में इस बात का गर्व (स्वाभिमान) होना चाहिये कि भगवान् मेरे अपने हैं, मैं भगवान् का हूँ—
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे।। (मानस, अरण्य. 11 । 11)
हम त्रिलोकी के स्वामी परमपिता परमात्मा की सन्तान हैं, फिर हम तुच्छ नाशवान संसार की ओर हाथ क्यों फैलायें ? जो संसार के सम्मुख होता है, उसको संसार अपना दास बना लेता है। परन्तु जो भगवान् के सम्मुख होता है, स्वयं भगवान् उसके दास बन जाते हैं—‘अहं भक्तपराधीनः’ (श्रीमद्भा.9/4/63); ‘मैं तो हूँ भगतन का दास, भगत मेरे मुकुटमणि’! ऐसे परमसुहृदय प्रभु को छोड़कर संसार को चाहना कितनी मूर्खता की बात है !
‘अबिनासी’—
परमात्मा अविनाशी हैं; अतः उनका अंश जीव भी अविनाशी है—‘अविनाशी तु तद्विद्धि’ (गीता 2/17)। परन्तु स्वयं अविनाशी होकर भी नाशवान् शरीर-संसार के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है—
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। (गीता 15/7)
इस संसार में जीव बना हुआ आत्मा स्वयं मेरा ही सनातन अंश है; परन्तु वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है अर्थात् अपना मान लेता है।’
कलीयुगमे भगवान व्यापक होगया सभी भगवान है यहा "नकलंकी" अवतार है भगवानका "वामन रूपे फरे छे विराट" जैसे भगवदगीतामे भगवानने अपना स्वरुप विराट बताया है। कलीयुग ये ऐसा युग है जीसमे देवी देवताभी तरसते है के हमेभी जन्म मीले कलीयुगमे और वहभी मनुष्य अवतारमें क्योकी बाकी सारे युगमे भगवान अलगसे अवतार लेतेथे तो उन्हे ढुंढने जाना पडताथा पर अब सारे मनुष्योका अवतारही भगवानका अवतार है व्यापक है भगवान सारे विश्वमे और ईसीलिये आखिरी मौका है सभीमे दर्शन करलो भगवानका जैसी भावना ऐसी सिध्धि सुना है न ! नकलंकीका मतलब जबभी भगवानने अवतार लिये तो कोइना कोइ मनुष्य उनमे दोष देखते जबकी भगवानमे कोइ दोश है ही नही जो अगर भगवानमे दोश देखते हो तो जरा देख लेना अपनी नजरोको हजारो दोश मीलेंगे उसमे और यह दोश समाप्त करनेके लिये सारे विश्वमे मनुष्य रुपमे विस्तार कर लिया है अपना भगवानने इसीलिये संत कबीरनेभी एक भजनमे कहा 'अपना दोश निहारलो नबस होगया भजन भगवानका' मतलबके खुदके दोश देखके भगवानके समीप हो जाना उसकाही आधार लेके अपनेकोही भगवानमे समर्पित करना जीससे साक्षात्कार होजाये सिध्धहो जाये ज्ञान हो जाये भगवानही है 'मै' नही व्यापक दर्शन पाले जीससे 'मै' मेरा और तु तेरा और भगवान ये सब लुका छुपीका खेलमे ईश्वरकी आज्ञाके बगैर पत्ताभी नही हिलता यह ज्ञात हो जाये और समर्पण होजाये जीवन भगवानके चरणोमे जीससे मोक्ष गतीमे जीवन चला जाये और मनुष्य जीवनका उदेष्यभी पूरा होजाये सभीका अत्मकल्याणहो जीसमे आत्मासे परमात्म तकका सफर तय होजाये जो अनंत है । जै गुरुजी जीसमे गुः याने अंधकार और रुः याने प्रकाश गुरु वह जो इस जीवको अंधकारसे उजालेमे ले आये । सभीमे गुरु दर्शन करनेसे यह सफर जल्दी तय हो जाता है जैसेकी औरतमे देखना जब हमे खाना बनाके देती है तो भुखको शांत करके हमे प्रकाशमे लाती है, बच्चेमेभी ऐसेही देखे और बच्चेके हम गुरु है उसके पिताके रुपमे याने जब जबभी जो हमे अंधकारसे बार निकाले उसे हम मनमे गुरु समझ शकते है जीससे आत्मासे परमात्मा तक सफर तय हो शके गुरुके चरणोमे कोटी कोटी वंदन जो निराकार है और बुध्ध्दिमे ज्ञानके रुपमे प्रघट होते है और अंधकारसे सदैवही बाहर निकालते रहते है। व्यापक सब घट आत्मा जाको आदि ना अंत सो मेरे उर नीत बसे जै जै गुरुभगवंत जाको गावत वेद नीत अकल अखंद अनंत सो मेरो निज आत्मा जै जै गुरुभगवंत गुरुके चरणोमे मेरा जीवन शरणागत हो जाये यही जीवनकी सच्ची प्रार्थना। जै गुरु ॐ।
ReplyDeleteभगवानकी लीला है ये अगर कीसी मनुष्यको ज्ञात हो जाये सचमे उसे सत्यका ज्ञान हो जाता है ये लीला बताते है कृष्णकी पर हयाती(ज़िंदगी या जीवन संबंधी; प्राण संबंधी )मे जो है ये सारा संसार हाल अभी याने जो हमारा शरीर और इस शरीरसे जोभी हम कर पा रहे है या कर रहे या कार्य हो रहे है यह सारा कुछ परमात्मकी लीला है यह जीसे ज्ञान होजाता है उसेभी मील जाते है परमात्मा और द्रष्टा बन जाता है इस लीला रूपी संसारका अपने जीवनका पर इसके लीये अभ्यास है एक राम जो हमार मन-वाणी दुसरे राम है श्वास जो धट घट व्यापक है तीसरे राम सर्जनहारा याने शिवम् अस्तु सर्व जगत है और चौथे राम है न्यारे जो सबसे उपर जो अपने श्वास को ले जाके सदाके लीये बैठादे अपने मस्तिकमे जीतेजी जिससे हो जाता है साक्षात अनुभव | Learning by Direct Experience नहीतो यह श्वास इन्सान जब मरजाता है तब तो चार घन्टे उनका श्वास रहता है इस देहमे और भगवान साक्षात मीलनेभी आते है पर जैसे आज जी रहा है मनुष्य वास्तवसे परे अपनी भ्रामक दुनियामे मरनेके समयभी यही हाल रहते है और कहते है परमात्मा सबको सद्बुध्धिदे जबकी परमात्माही है सबकुछ हमारे जीवनका अस्तित्व रूवे रूवे, रोम-रोम में समाया है वही है वास्तविकता हमारा होना यह है सच और बाकी उस जगदीश्वरकी लीला जो हाल आज अभी चल रहा है हमारा आपका सारे विश्वका सच । जै गुरुदेव तुम्हारे चरणोमे कोटी कोटी वंदन गुरुवे जो सिर्फ मतीमे ज्ञानके रूपमेही दर्शन देते है और जो विश्वके सारे शरीरोमे एक है या यु कहे पूरे अखिल ब्रह्मांडमे है एक । व्यापक सब घट आत्मा जाको आदि ना अंत सो मेरे उर नीत बसे जै जै गुरु भगवंत जाको गावत वेद नीत अकल अखंद अनंत सो मेरो नीज अत्मा जै जै गुरु भगवंत ।